भेददृष्टि
हर जीव में ही स्वयं का नूर भासित होता है। तब कौन अपना और कौन पराया ? यह भेददृष्टि ही कहाँ रहती है ? इस कायनात के कण-कण में तब हमें ब्रम्ह-ही-ब्रम्ह का अभास होने लगता है। उस अवस्था में ऐसा लगता है कि जैसे अपनी आत्मा ने परमात्मा-सा, ब्रम्ह-सा विस्तार पा लिया हो। सागर से मिलते ही सरिता का अपना अस्तित्व ही कहाँ रहता है, तब वह भी सागर हो जाती है। ऐसे ही जीवात्मा भी ब्रम्ह से मिलकर ब्रम्ह ही हो जाती है।
Every living being has its own light. Then who's own and who's alien? Where does this discrimination reside? In every particle of this universe, then we start to have the feeling of Brahma-hi-Brahm. In that state, it seems as if its soul has attained the expansion of God like that of Brahma. Where does Sarita have her own existence as soon as she meets the ocean, then she also becomes the ocean. Similarly, the soul also merges with Brahma and becomes Brahman.
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वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेद विषय विचार नामक अध्याय के अन्तर्गत कहते हैं कि सुगन्ध आदि से युक्त जो द्रव्य अग्नि में डाला जाता है, उसके अणु अलग-अलग होके आकाश में रहते हैं। किसी द्रव्य का वस्तुतः अभाव नहीं होता। इससे वह द्रव्य दुर्गन्धादि दोषों का निवारण करने वाला...