दिव्य-पवित्र वातावरण
गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि ''मैं वृक्षों में पीपल हूँ।' तुलसी का पौधा स्वयं विष्णुप्रिया के रूप में पूजनीय है। वटवृक्ष में भगवान शिव का वास बताया गया है। प्रकृति का पूजन, संरक्षण हमारे भौतिक जीवन के साथ-साथ आध्यात्मिक जीवन के लिए भी उतना ही आवश्यक है। हमारे अधिकांश तीर्थस्थल प्रकृति की सुरम्य वादियों में स्थित हैं; सिंधु-सरिताओं, सागरों के किनारे स्थित हैं। प्रकृति के इस दिव्य-पवित्र वातावरण में रहते हुए मनुष्य भी दिव्य व पवित्र होने लगता है। ऋषियों के आश्रम, आरण्यक आदि के विवरण प्रकृति के बीच उपस्थिति के रूप में मिलते हैं, जिससे कि वे वहाँ के निश्छल व सौम्य वातावरण में जप, तप, ध्यान आदि के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति के शीर्ष को छू पाया करते थे एवं अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया करते थे।
In the Gita, Lord Krishna himself says that "I am the Peepal in the trees." The Tulsi plant itself is revered as Vishnupriya. Lord Shiva's abode is said to be in the banyan tree. Worship, protection of nature is equally necessary for our material life as well as spiritual life. Most of our pilgrimage centers are located in picturesque prairies of nature; The Indus-streams are situated on the banks of the oceans. Living in this divinely-holy environment of nature, man also starts becoming divine and pure. The descriptions of the ashrams, Aranyakas etc. of the sages are found in the form of presence in the midst of nature, so that they could touch the peak of spiritual progress through chanting, austerity, meditation etc. used to achieve the target.
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वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेद विषय विचार नामक अध्याय के अन्तर्गत कहते हैं कि सुगन्ध आदि से युक्त जो द्रव्य अग्नि में डाला जाता है, उसके अणु अलग-अलग होके आकाश में रहते हैं। किसी द्रव्य का वस्तुतः अभाव नहीं होता। इससे वह द्रव्य दुर्गन्धादि दोषों का निवारण करने वाला...